दादर कबूतरखाना बंद करने के बीएमसी के फैसले पर जैन समुदाय में आक्रोश दिखा। मुनि निलेशचंद्र विजय ने 13 अगस्त से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की चेतावनी दी। कहा,”धर्म के लिए हथियार उठाने से भी पीछे नहीं हटेंगे”, वहीं मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा ने दिए गए बयान से दूरी बना ली।
मुंबई, 12 अगस्त: मुंबई के दादर स्थित कबूतरखाना को बंद करने के बीएमसी के फैसले ने धार्मिक भावनाओं को झकझोर दिया है। जैन समुदाय, जो वर्षों से इस स्थान पर कबूतरों को दाना डालता आ रहा है, इसे अपनी धार्मिक परंपरा का हिस्सा मानता है। जैन मुनि निलेशचंद्र विजय ने घोषणा की कि यदि प्रशासन ने अपना फैसला वापस नहीं लिया तो वे 13 अगस्त से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठेंगे। उन्होंने कहा, “हम सत्याग्रह का रास्ता अपनाएंगे, लेकिन जरूरत पड़ी तो धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र भी उठाएंगे।”
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प्रशासनिक कार्रवाई से भड़के श्रद्धालु
बीएमसी ने हाल ही में दादर कबूतरखाना को बंद करते हुए वहां बांस की संरचना को दुरुस्त कर सिल्वर रंग की प्लास्टिक शीट से कवर कर दिया। यह कदम इसलिए उठाया गया ताकि लोग वहां पर कबूतरों को दाना न डाल सकें। इसके पीछे प्रशासन ने स्वास्थ्य कारणों और जनहित का हवाला दिया है। हालांकि, 6 अगस्त को बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों ने बीएमसी द्वारा लगाई गई तिरपाल हटाकर विरोध जताया और पुलिस के साथ झड़प भी हुई। इसके बाद से क्षेत्र में सुरक्षा बढ़ा दी गई है और बीएमसी ने अपने मार्शल भी तैनात कर दिए हैं। वहीं, मुंबई हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि उसने कबूतरखाना बंद करने का आदेश नहीं दिया है, केवल बीएमसी के आदेश पर रोक लगाने से इनकार किया है।
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मंत्री ने बनाई दूरी, कोर्ट ने दी संतुलित टिप्पणी
महाराष्ट्र के कौशल विकास मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा, जो पहले कबूतरखानों को बचाने के पक्ष में रहे हैं, ने मुनि विजय के बयान से खुद को अलग कर लिया। उन्होंने कहा, “मैं इस बयान से सहमत नहीं हूं। मैंने इस विषय पर दो बार बात की है और अपनी भूमिका निभा रहा हूं। इससे अधिक टिप्पणी नहीं करूंगा।” इस बीच हाईकोर्ट ने कहा है कि शहर में पुराने कबूतरखानों की जरूरत को लेकर विशेषज्ञ समिति अध्ययन कर सकती है, लेकिन “मानव जीवन सर्वोपरि है।” कोर्ट में बीएमसी के फैसले को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई जारी है।
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कबूतरखाना विवाद बना आस्था बनाम सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा
यह विवाद अब केवल एक धार्मिक स्थल को बंद करने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह आस्था बनाम सार्वजनिक स्वास्थ्य और कानूनी व्यवस्था के टकराव का उदाहरण बन गया है। एक ओर जैन समुदाय अपनी वर्षों पुरानी परंपरा को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है, तो दूसरी ओर प्रशासन और न्यायपालिका मानव जीवन और स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की बात कर रहे हैं। आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह संघर्ष किस मोड़ पर जाकर शांत होता है और क्या दोनों पक्ष किसी संतुलित समाधान पर पहुंच पाते हैं।
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